शनिवार, 26 सितंबर 2015

एक मरीचिका ने हमें जिन्दा रखा है


समय साक्षी है
आदि काल से देखा है हमने
कैसे-कैसे अत्याचार हुए हैं हम पर
अहंकारों की विजय की खातिर
व्यवस्था के क्रूर हाथों हम
हमेशा छले गये हैं।

समय साक्षी है
देवासुर संग्राम हो या
महाभारत का संग्राम,
लंका विजय हो या आधुनिक
विश्व के अलग-अलग क्षेत्रों में
युद्ध के इस खेल में
मरता कौन है?
वही जिसे इस अहंकार-महासंग्राम
से कोई मतलब नहीं होता।

समय साक्षी है
जो पैदा हुआ
वह मरना नहीं चाहता
लेकिन उसके अपने अहंकार ने
उसके अंदर के मनुष्यत्व को
मार डाला क्यों?
यह सिलसिला अनवरत जारी है
युगों-युगों से!

समय साक्षी है
पहरूए हमें जगा-जगा कर
लूटते रहें, हम पिटते रहें
सावधन! जागते रहो! के ढोंग से
हमारा विश्वास जीतते रहे
ये न सोने देते, न जागने देते
हमारे मन-मस्तिष्क में
हमारे विचारों में छलिया-पहरूए
पहरूए की तरह पलते रहे
हम हमेशा छलते रहें हैं, छलते रहेंगे।

समय साक्षी है
यह सब आखिर इस लिए कि
व्यवस्था इनके क्रूर हाथों में
खिलौने की तरह रहे
वे उनसे खेलते रहें,
हम दर्शक की भूमिका में
हम खेल देखते रहें हैं, देखते रहेंगे
कई-कई वेशों में होते हैं ये
कभी खिलाड़ी के वेश में तो
कभी कबाड़ी के वेश में तो
कभी जुआरी के वेश में
कभी मदारी के वेश में।

समय साक्षी है
आज तक कोई रहबर नहीं हुआ
जन-नायक नहीं हुआ
नाम और काम इनके
जन-नायकों के जैसे
मायावी बने महाभ्रम में डाल हमें
युगों-युगों से छलते रहे ऐसे
समाज के उत्थान के लिए
मसीहा के वेश में जमीन पर
उतरा हो जैसे।

समय साक्षी है
एक मरीचिका ने हमें
जिन्दा रखा हुआ है युगों-युगों से
कि एक दिन हम
बोलने के काबिल जरूर बन जायेंगे
बोलने कौन देगा
महाबलियों के इस मायाजाल में
कानफोड़ू आवाज हमारी बुद्धि
को गुलाम बना रखी है
युगो-युगों से।

समय साक्षी है
गुलामी की जंजीरों को तोड़ने
के लिए बड़े-बड़े नाटक होते रहे हैं
इस धरा पर
युगों-युगों से इस नाटक में
अहंकार हमेशा विजयी होता रहा।
परास्त हुए हैं हम
युगों-युगों से
शांति के लिए बड़े-बड़े यज्ञ हुए
इस धरा पर, महा-हवन हुए
लेकिन हमारे अंदर के अहंकार ने
लील लिया शांति के
मूल-मंत्र के आह्वान को।

समय साक्षी है
सारा खेल जमीन के टुकड़ों
के बहाने
हमारे लिए खेले, लड़े गये
हमें क्या मिला इस खेल में
सिर्फ मौत, प्रताड़ना और गुलामी।
आदि युग में रहे तब भी
पाषाण युग में रहे तब भी
मध्य युग में रहे तब भी
आधुनिक युग को भी देख रहे हैं।

समय साक्षी है
समय खबरदार करता है
युग करवटें ले रहा है
सम्हलने और सोचने का समय
आ गया है
गुलामी की जंजीरों को
तोड़ स्वतंत्र होने का
युग प्रारंभ हो गया है
गुलामी की नीम तंद्रा को तोड़ना होगा
पेट तो उनका भी भर जाता है
जो सोये-पड़े रहते हैं।
सिर्फ पेट भरने के लिए गुलामी
की जिंदगी जीना ही हमने
अपनी नियति बना ली है तो
कोई बात नहीं

समय साक्षी है
पहले की गुलामी नंगे बदन और
भूखे पेट रह की जाती थी
अब सुट-बूट में जारी है गुलामी
रूप और रंग अत्याचार के लिए
बदल गये हैं सिर्फ
मोटी-मोटी रकम बैंक में
और खर्च करने की पूरी आजादी
बाजारवाद जीवन पर इतना भारी
कि आप भाग भी नहीं सकते कहीं
राजनीति रास्ते में लूटेरी बनी बैठी है।

अरुण कुमार झा,
प्रधान संपादक, दृष्टिपात हिंदी मासिक